Sunday, February 26

सच्ची निष्ठा

हरे कृष्ण 
गोपाल ..

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पहले समय की बात है ।सिन्धु देश की पल्ली नगरी में कल्याण  नाम का एक  धनि  सेठ रहता था । उसकी पत्नी का नाम इंदुमती था । विवाह होने के बहुत दिनों बाद उनका पुत्र हुआ, उसके जन्मोत्सव में उन लोगो ने अनेक दान पुण्य किये  राग-रंग और आमोद प्रमोद में पर्याप्त धन व्यय किया । उसका नाम रखा गया  बल्लाल, वह उन दोनों के नयनो का राता था ।
"कितना मनोरम स्थान है ।" सरोवर में अपने सम-व्यस्क बल्गोपलो के साथ स्नान करते हुए बल्लाल ने अपने कथन  का समर्थन करना चाह । वह उन्हें नित्य अपने साथ लेकर पल्ली से थोड़ी दूर स्थित वन में आकर सैर--सपाटा किया करता था । बालको ने उसकी हाँ  में हाँ  मिलायी ।
"चलो, हम लोग भगवान विघ्नेश्वर श्री गणेश देवता की पूजा करे, क्युकि वे बद किस्मत बेबस के वे ही सहारे है ।" बल्लाल ने किनारे एक छोटे से पत्थर को श्री गणेश का श्रीविग्रह मानकर बालको को पूजा करने की प्रेरणा दी । उसने श्री गणेश-महिमा के सम्बन्ध में अनेक बाते हर में सुनी थी ।
लता-पत्र एकत्र कर बालको ने एक मंडप बना लिया , उसमे तथा कथित श्रीगणेश विग्रह की स्थापना करके मानसिक पूजा-फूल,धुप,दीप,नैवेध, फल , ताम्बुल, धक्शिना आदि से आरम्भ की   उनमे से  कई एक पंडितो का स्वांग बनाकर पुरानो और शास्त्रों की चर्चा  करने लगे ।
 इस प्रकार श्री गणेश की उपासना में उनका मन लग गया । वे दोपहर को भोजन करने घर  नहीं आते थे , इसलिए दुबले हो गए । उनके पितो ने कल्याण सेठ से कहा कि यदि  बलाल का वन में जाना नहीं रोक दिया जायेगा तो हम लोग रजा से शिकायत करके आपको पल्ली  नगरी से बहार निकलवा देंगे । कल्याण का मन चिंतित हो गया ।
"ये तो नकली गणेश है बच्चो ।" असली गणेश जी तो ह्रदय में रहते है ।" कल्याण ने हाथ के डंडे से बल्लाल को सावधान किया ।
"पिताजी, आप जो कुछ भी कह रहे है वह आपकी द्रष्टि में नितांत सच है,पर मेरी निष्ठां तो श्री गणेश के इसी श्रीविग्रह में है । मै पूजा नहीं छोड सकता ।" बल्लाल का इतना कहा था कि सेठ ने उसे मारना प्रारंभ किया , अन्य बालक भाग निकले । सेठ ने मंडप तोड़ डाला , बल्लाल को एक मोटे से रस्से से पेड़ के ताने से बांध दिया ।
"यदि इस विग्रह में श्री गणेश जी होंगे तो तुम्हारा बंधन खुल  जायेगा । इस निर्जन वन में वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे ।" कल्याण ने घर का रास्ता लिया ।
"नि: संदेह श्री गणेश जी ही मेरे माता पिता है । वे दयामय ही मेरी रक्षा करेंगे । वे विघन विदारक, सिद्धि दायक, सर्वसमर्थ है ।मै उनकी शरण में अभय हूँ ।" बल्लाल कि निष्ठां बोल उठी , वह ह्रदय में करुणा. का वेग समेटकर निर्निमेष द्रस्ती से श्री गणेश के विग्रह को देखने लगा । "मेरा तन भले ही बांधा जाय पर मेरा मन स्वतंत्र है, मै अपना प्राण श्री गणेश के चरणों में अर्पित करूँगा ।" बल्लाल के इस निश्चय से पाषण से श्री गणेश जी प्रकट हो गए ।
"तुम्हारी निष्ठां धन्य है ,  वत्स ।' श्री गणेश ने उसका आलिंगन किया । वह बंधन मुक्त हो गया । उसने अपने आराध्य की जी भर स्तुति की । गणेश जी ने अभय दान दिया और अंतर्धान हो गए ।



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