भगवान सब के गुरु है.
"कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम "
"जगद्गुरुम च शास्वतम "
सच्चे हृदय से प्रार्थना,जब भक्त सच्चा गाय है!
तो भक्तवत्सल कान में ,वह पहुँच झट जाय है!!
हमें अपने कल्याण की जीतनी चिंता है उससे ज्यादा चिंता भगवन को और संत-महात्माओ को चिंता है.बच्चे को जिनी चिंता अपनी होती है उससे कही ज्यादा चिंता उसके माँ को होती है,पर बच्चा को इस बात को समझता नहीं.
गुकरास्चंध्कारो हि रुकारस्तेज उच्यते!
आग्यानाग्रासक्म ब्रह्म गुरुरेव न संशय:!!
अर्थात "गु" नाम अंधकार का है और "रु" नाम प्रकाश का है, इसलिए जो अज्ञानरूपी अन्धकार को मिटा दे, उसका नाम गुरु है.
वास्तविक गुरु
वास्तविक गुरु वह होता है,जिसमे केवल शिष्य के कल्याण की चिंता होती है.जिसके हृदय में हमरे कल्याण की चिंता हि नहीं वह हमारा गुरु कैसे हुआ? जो हृदय से हमारा कल्याण चाहता है,वही वास्तविक गुरु है,चाहे हम उसको गुरु मने या न माने और वह गुरु बने या न बने.उसमे यह इच्छा नहीं होती की मई गुरु बन जाऊ,दूसरे मेरे को गुरु मान ले,मेरे चेले बन जाये.जिसके मन में धन की इच्छा होती है वह धन दास होता है ऐसे हि जिसके मन में चेले की इच्छा होती है वह चेला दास होता है.विचार करे, जो आप से कुछ भी चाहता है वह आपका गुरु कैसे हो सकता है?जिसको किसी की गरज नहीं होती वह वास्तविक गुरु होता है.
कबीर जोगी जगत गुरु,तजे जगत की आस!
जो जग की आसा करे तो जगत गुरु वह दास !!
जो जग की आसा करे तो जगत गुरु वह दास !!
गुरु की महिमा
गुरु की महिमा वास्तव में शिष्य की दृष्टि से है, गुरु की दृष्टि से नहीं.असली महिमा उस गुरु की है,जिसने गोविन्द से मिला दिया है.जो गोविन्द से तो मिलाता नहीं,कोरी बाते हि करता है,वह गुरु नहीं होता.
गुरु की कृपा
परस में आरू संत में,बहुत अंतरों जान!
वह लोहा कंचन करे,वह करे आपु समान!!
यह गुरु कृपा की हि महिमा हो सकती है.यह गुरु कृपा चार प्रकारसे होती है-स्मरण से, दृष्टि से,शब्द से और स्पर्श से.जैसे कच्चवी रेट के भीतर अंडा देती है,पर खुद पानी के भीतर रहती हुई उस अंडे को यद् करती है तो उसके स्मरण से अंडा पक जाता है-ऐसे हि गुरु के यद् करने मात्र से हि शिष्य को ज्ञान हो जाता है-यह "स्मरण दिख्षा" है.जैसे मछली जल में अपने अंडे को थोड़ी-थोड़ी देर में देखती रहती है,ऐसे हि गुरु की कृपा दृष्टि से शिष्य को ज्ञान हो जाता है-यह "दृष्टि-दिख्षा" है.
यानि की गुरु की कृपा होना परम आवश्यक है.
भागवत का सूत्र भी है -गुरु की कृपा से हि ज्ञान-वैराग्य-भक्ति रुपी दीपक को गुरु कृपा रुपी चिमनी से हि अखंड प्रज्ज्वलित रखा जा सकता है.
वह लोहा कंचन करे,वह करे आपु समान!!
यह गुरु कृपा की हि महिमा हो सकती है.यह गुरु कृपा चार प्रकारसे होती है-स्मरण से, दृष्टि से,शब्द से और स्पर्श से.जैसे कच्चवी रेट के भीतर अंडा देती है,पर खुद पानी के भीतर रहती हुई उस अंडे को यद् करती है तो उसके स्मरण से अंडा पक जाता है-ऐसे हि गुरु के यद् करने मात्र से हि शिष्य को ज्ञान हो जाता है-यह "स्मरण दिख्षा" है.जैसे मछली जल में अपने अंडे को थोड़ी-थोड़ी देर में देखती रहती है,ऐसे हि गुरु की कृपा दृष्टि से शिष्य को ज्ञान हो जाता है-यह "दृष्टि-दिख्षा" है.
यानि की गुरु की कृपा होना परम आवश्यक है.
भागवत का सूत्र भी है -गुरु की कृपा से हि ज्ञान-वैराग्य-भक्ति रुपी दीपक को गुरु कृपा रुपी चिमनी से हि अखंड प्रज्ज्वलित रखा जा सकता है.
गुरु के वचन का महत्व
गुरु बनाने से कल्याण नहीं होता,प्रत्युत गुरु की बात मानने से कल्याण होता है.क्योंकि गुरु शब्द होता है शरीर नहीं-
जो तू चेला देह को,देह खेह की खान!
जो तू चेला सबद को,सबद ब्रहम कर मान!!
भगवान से लाभ उठाने की पञ्च(५) बाते है-नाम जप ,ध्यान ,सेवा,आज्ञा पालन और संग!परन्तु संत महात्माओ से लाभ उठाने में तीन ही बाते उपयुक्त है-सेवा,आज्ञा पालन और संग.इसलिए गुरु के सिध्दांत के अनुसार अपना जीवन बनाना ही वास्तविक गुरु-पूजन और गुरु-सेवा है .सिध्दांत को बचने के लिए वे अपने प्राण भी दे देते है,पर सिध्दांत नहीं छोड़ते.
गुरु बनाने से कल्याण नहीं होता,प्रत्युत गुरु की बात मानने से कल्याण होता है.क्योंकि गुरु शब्द होता है शरीर नहीं-
जो तू चेला देह को,देह खेह की खान!
जो तू चेला सबद को,सबद ब्रहम कर मान!!
भगवान से लाभ उठाने की पञ्च(५) बाते है-नाम जप ,ध्यान ,सेवा,आज्ञा पालन और संग!परन्तु संत महात्माओ से लाभ उठाने में तीन ही बाते उपयुक्त है-सेवा,आज्ञा पालन और संग.इसलिए गुरु के सिध्दांत के अनुसार अपना जीवन बनाना ही वास्तविक गुरु-पूजन और गुरु-सेवा है .सिध्दांत को बचने के लिए वे अपने प्राण भी दे देते है,पर सिध्दांत नहीं छोड़ते.
गुरु बनने का अधिकार किसको?
गुरु की महिमा गोविन्द से अधिक बताई गई है,पर यह महिमा उस गुरु की है जो शिष्य का उध्दार कर सके.श्रीमद्भागवत में आया है-
गुरुर्न स स्यात्स्वजानो न स स्यात! (५/५/१८)
"जो समीप आई हुई मृत्यु से नहीं छुड़ाता वह गुरु नहीं"
यानि की जब तक अपने में शिष्य का उध्दार करने की ताकत न ए तब तक कोई गुरु मत बनो.और हा मनुष्य का जन्म जात गुरु है उसका विवेक.
गुरु की महिमा गोविन्द से अधिक बताई गई है,पर यह महिमा उस गुरु की है जो शिष्य का उध्दार कर सके.श्रीमद्भागवत में आया है-
गुरुर्न स स्यात्स्वजानो न स स्यात! (५/५/१८)
"जो समीप आई हुई मृत्यु से नहीं छुड़ाता वह गुरु नहीं"
यानि की जब तक अपने में शिष्य का उध्दार करने की ताकत न ए तब तक कोई गुरु मत बनो.और हा मनुष्य का जन्म जात गुरु है उसका विवेक.
भगवत प्राप्ति गुरु के अधीन नहीं
जिसको हम प्राप्त करना चाहते है वह परमात्मतत्व एक जगह सीमित नहीं है,किसी के कब्जे में नहीं है.जो उन परमात्मा को जानते है वे वे न ही गुरु बनाने की इच्छा रखते है और न ही फीस(भेंट) लेते है.बल्कि वे तो सबको देते है. अगर गुरु बनाने से ही कोई चीज मिलेगी तो वह गुरु से कम दाम वाली होगी यानि की गुरु से कजोर ही होगी.फिर उससे हमें भगवन कैसे मिल जायेंगे?भगवन अमूल्य है.
जिसको हम प्राप्त करना चाहते है वह परमात्मतत्व एक जगह सीमित नहीं है,किसी के कब्जे में नहीं है.जो उन परमात्मा को जानते है वे वे न ही गुरु बनाने की इच्छा रखते है और न ही फीस(भेंट) लेते है.बल्कि वे तो सबको देते है. अगर गुरु बनाने से ही कोई चीज मिलेगी तो वह गुरु से कम दाम वाली होगी यानि की गुरु से कजोर ही होगी.फिर उससे हमें भगवन कैसे मिल जायेंगे?भगवन अमूल्य है.