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सदगुरु कृपा केवलम..
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संतो का इतना महात्म्य है की उनकी स्पर्श की हुई हवा,चरण-रज आदि परम पवित्र हो जाते है| उनके दर्शन भी परम पवित्र करने वाले होते है| पर मूल महात्म्य उनके ज्ञान और भक्ति का है |
" यात्पदापंकजराज:श्रयन्म विना मे"
"पर: पुरुष: पुरासित"
"चास्ति न भविष्यति भेद बुद्धि : "
अर्थ - मैंने जब तक उन महापुरुषों की चरण-रज का आश्रय नहीं लिया,तब तक होता हुआ भी, वह सचिदानंद्घन परमात्मा, नही की तरह था अर्थात भगवान है की नही,पता नही -ऐसी दस थी,परन्तु जब मैंने उनकी चरण-रज को स्वीकार
किया तो मालूम पड़ा कि-न भेद बुद्धि थी ,न है और न होगी |
संतो कि कृपा कब होगी?
जब हम उनके अनुकूल होंगे| हम सभी देखते है कि बचाडा आ कर दूध पिने लगता है तो गाय के शरीर मे रहने वाला दूध थनों मे आ जाता है ऐसे ही जब कोई श्रद्धा-प्रेम पूर्वक संतो से पूछता है तो उनका समस्त ज्ञान बुद्धि,मन और वाणी मे आने लगता है,टपकने लगता है|
यह सब उनके अनुकूल बनाने कि महिमा है धुल और मिट्टी की नही हा उसे भी हम नही भूल सकते पर उनके अनुकूल होने की महिमा जानना भी जरुरी है |
केवल शिष्य बनने से से लाभ नही होता,जितना कि अधीन होने से,शरण हो कर उत्कंठित होने पर होता है|
अर्जुन ने भी भगवान से-" शिष्यस्ते अहम् " " मै आपका शिष्य हूँ"- कहकर
"शाधि मां प्रपन्नम "- "मै आपकी शरण हूँ मेरे को ज्ञान दीजिये"- ऐसा कहा
अर्थात शिष्य बनने से भी अधिक लाभ शरण मे होने मे है|
उत्कंठा होने पर वही दिव्य ज्ञान मिलता है|
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