हरे कृष्ण
गोपाल...
श्लोक-5 आयि नन्दतनूज किंकर पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ |
कृपया तव पादपंकजस्थितधुलिसद्रशं विचिन्तय ||
यह संसार समुद्र के सामान है मुझे इसमें तुमने क्यों फ़ेंक दिया मुझे इसकी कोई शिकायत नहीं है |मई अपने कर्मो के अधीन हो कर इसमें गोते लगा रा हूँ,बार-बार डूबता हूँ और फिर तुम्हारी करुना के सहारे ऊपर टेरने लगता हूँ | इस अथाह सागर के सम्बन्ध में मै कुछ भी नही जनता की यह कितना गहरा है,किन्तु हे मेरे रमण ! मई इसमें डुबकिय मारते-मरते थक गया हूँ|कभी कभी खरा पानी मुह में चला जाता है,तो कई-सी होने लगती है| कभी कानो में पानी भर जाता है ,तो आंखे कभी नमकीन जल से चिर्चिराने लगती है | कभी-कभी- नक् में होकर जल चला जाता है|हे मेरे मनोहर मल्लाह ! हे मेरे कोमल प्रकृति केवट ! मुझे अपना नौकर जानकर,सेवक समझकर कही बैठने का स्थान दो ! तुम तो ग्वाले के छोकरे हो न, बड़े चपल हो | पूछ सकते हो,"इस अथाह जल में मै बैठने के लिए तुझे कहा स्थान दू | मेरे पास नव भी तो नही जिसमे तुम्हे बिठा लू |" तो हे मेरे रसिकशिरोमणि ! मै चालाकी नही करता,तुम्हे भूलता नही सुझाता हूँ! तुम्हारे पास एक ऐसा स्थान है,जो जल में रहने पर भी नहीं डूबता और उसमे तुमने मुझ जैसे अनेको डूबते हुओ को आश्रय दे रखा है | तुम्हारे ये अरुण वर्ण के जो कोमल चरण कमल है,ये तो जल में ही रहने के आदी है| इन चरण कमलो में सैकड़ो धुल के कण जल में रहते हुए भी निश्चितरूप से बिना डूबे ही बैठे है| हे नंदजी के लाडिले लाल! उन्ही धूलकणों में मेरी भी गणना कर लो | मुझे भी उन पवन पद्मो में रेनू बना कर बिठा लो | वह बैठकर मै तुम्हारी धीरे-धीरे पैर हिलाने की क्रीडा के साथ थिरक-थिरक कर सुन्दर स्वर से इन नमो का गायन करता रहूँगा-
श्री कृष्ण!गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव !
क्रमश:
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