हरे कृष्ण
गोपाल....
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गदरुध्द्यागिरा |
पुलकैनिर्चितं वपु: कदा तव नामग्रहने भविष्यति ||
प्यारे मैंने ऐसा सुना है की आंसुओ के भीतर जो सफ़ेद-सफ़ेद कांच का सा छोटा सा घर दिखता है..उसी के भीतर तुम्हारा घर है | तुम सदा उसी में वास करते हो | यदि यह बात ठीक है,तब तो प्रभो! मेरा नाम लेना व्यर्थ ही है | मेरी आंखे अनसु तो बहाती ही नहीं, तुम तो भीतर ही छिपे रहते होंगे| बोलना-चलाना तो वाचालता में होता है,तुम संभवतया माँवियो से प्यार करते होगे,किन्तु हे दयालु| मौन कैसे रहू? यह वाणी तो अपने-अप ही फुट पड़ती है | वाणी को रुक दो,गले को रुद्ध कर दो,जिससे स्पष्ट एक भी शब्द न निकल सके | सुस्ती में सभी वस्तुए शिथिल हो जाती है| तुम कहते हो-"तेरे ये सरीर के बल क्यों पड़े है?" प्यारे ! इनमे विधुत का संचार नही हुआ है | अपनी विराह्रुपी बिजली इनमे भर दो,जिससे ये तुम्हारे नाम का शब्द सुनते ही चौंककर खड़े हो जाये| हे मेरे विधाता| इनकी सुस्ती मितादो,इनमे ऐसी शक्ति भरदो जिससे फुरहरी आती रहे | बस, जहा तुम्हारे नाम की ध्वनी सुनी,वही दोनों नेत्र अश्रु से भर जाये,वाणी अपने-आप ही रुक गयी, sharir के सभी रोम बिलकुल खड़े हो गये |प्यारे तुम्हारे इन मधुर नमो को लेते हुए कभी मेरी ऐसी स्थिति हो भी सकेगी क्या?
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव|
युगायितं निमेषेण
हे प्यारे तुम्हारे विरह में मेरा जीवन वर्षा मय हो गया है| तुम्हारे विरह का हर एक पल युग के सामान लगता है |मेरे नेत्रों से सदा वर्षा की धाराए ही छुटती रहती है क्योकि तुम दिकहते नही हो,कंही दूर जाकर छिप गए हो|मई हमेशा तुम्हारा नाम रोते हुए गाता रहू |
यथा तथा व विदधातु लंपटो
हे सखी इन व्यर्थ की बातो में क्या रखा है |तू मुझे उसके गुण क्यों सुनाती है ?
वह चाहे दया मय या धोखेबाज,प्रेमी हो या निष्ठुर ,रैक हो या जर शिरोमणि | मई तो उसकी चेरी बन चुकी हूँ| मैंने तो अपना अंग उसे ही अर्पण कर दिया है| वह चाहे तो इसे ह्रदय से लगाकर चिपटा कर प्रेम के कारन इसके रोमो को खड़ा कर दे या अपने विरह में जल से निकली हुई मर्माहत मचली की भांति तदफाता रहे| मै उस लम्पट के पाले में अब तो पड़ ही गई हूँ | अब सोच करने से हो ही क्या सकता है,जो होना था सो हो चुका | मै तो अपना सर्वस्व उस पर वर चुकी| वह इस सरीर का स्वामी बन चूका है| अब कोई अपर पुरुष इसकी और द्रस्ती भी नही देख सकता | उसके अनंत सुन्दर और मनमोहक नाम है,उनमे से रोते रोते इन्ही नमो का उच्चारण करती हूँ-
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव |
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