हरे कृष्ण..
गोपाल
आज तक जितनी नाम की महिमा सुनी गई है या लिखी गई है वो उतनी तो है ही,पर उसके अलावा भी बहुत अधिक बाकि है | परन्तु जब हम नाम सही से नही लेते तो हमें लगता है की जितनी नाम की महिमा बाई गई है शास्त्रों में उतनी देखने को नही मिलती | देखने में इसलिए नही मिलती क्यों की हमने सही से भगवन के नाम का आश्रय लिया ही नही | भगवन को अपना मान कर नाम जप करने से उसका विशेष प्रभाव होता है | और उन्हें अपना क्या मानना.. वो तो असल में हमारे है | परिवार वाले हमारे है | पर अपनी ख़ुशी के लिए उनसे लेने का भाव रखने से हम संसार में फंश जाते है | हमें देने का भाव रखना चाहिए और नारद भक्ति सूत्र भी यही कहता है |
किसी भक्त ने तो कहा है मुझे ये बहुत अच्छा लगा -
" ते मरने अपि चिन्तयामि"
" हे प्रभु चाहे अप हमें स्वर्ग का निवास दे,चाहे नारको का निवास दे या ये जनम दुबारा दे | इसके लिए मई मन नही करता|मेरी तो बस ये हिमंग है की सरद ऋतू के कमल की सोभा को हराने वाले आपके जो चरण है,उनको मृत्यु अवस्था में भी भूलू नही |
आपके चरण मेरे को सदा याद रहे "
"भ्रत्यस्य भृत्य ईति मां स्मर लोकनाथाय"
" मेरे जन्म का यही फल है,मेरी प्रार्थना भी एक ही विषय है और आपकी कृपा भी मै इसी में मानता हूँ की आप अपने दसो के दस,उन दसो के नौकरों का नौकर और उन नौकर के गुलामो का गुलाम और उनका भी गुलाम-इस तरह अपने दासो की परम्परा में मेरे को भी याद करले |"
श्रीमद भागवत जी में भी अंत में यही माँगा गया है |
और ऐसी बात करने पर भगवन भी अपने भक्त को याद किये बिना नही भूलते-
"संत मेरे हृदय है और मै उन संतो का हृदय हूँ | वे मेरे सिवाय और किसी को नही जानते और मै भी उनके सिवाय ओर कुछ नही जानता|"
मै भगवन का हूँ और भगवन मेरे है..फिर वे ए क्यों नही?अभी तक भगवन मिले क्यों नही? अभी तक भगवन ने दर्शन क्यों नही दिए? ऐसी व्याकुलता होने पर जब संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विचेद हो जाता है तब भगवत्प्राप्ति होती है |
text2011, copyright © bhaktiprachar.in
गोपाल
आज तक जितनी नाम की महिमा सुनी गई है या लिखी गई है वो उतनी तो है ही,पर उसके अलावा भी बहुत अधिक बाकि है | परन्तु जब हम नाम सही से नही लेते तो हमें लगता है की जितनी नाम की महिमा बाई गई है शास्त्रों में उतनी देखने को नही मिलती | देखने में इसलिए नही मिलती क्यों की हमने सही से भगवन के नाम का आश्रय लिया ही नही | भगवन को अपना मान कर नाम जप करने से उसका विशेष प्रभाव होता है | और उन्हें अपना क्या मानना.. वो तो असल में हमारे है | परिवार वाले हमारे है | पर अपनी ख़ुशी के लिए उनसे लेने का भाव रखने से हम संसार में फंश जाते है | हमें देने का भाव रखना चाहिए और नारद भक्ति सूत्र भी यही कहता है |
किसी भक्त ने तो कहा है मुझे ये बहुत अच्छा लगा -
" ते मरने अपि चिन्तयामि"
" हे प्रभु चाहे अप हमें स्वर्ग का निवास दे,चाहे नारको का निवास दे या ये जनम दुबारा दे | इसके लिए मई मन नही करता|मेरी तो बस ये हिमंग है की सरद ऋतू के कमल की सोभा को हराने वाले आपके जो चरण है,उनको मृत्यु अवस्था में भी भूलू नही |
आपके चरण मेरे को सदा याद रहे "
"भ्रत्यस्य भृत्य ईति मां स्मर लोकनाथाय"
" मेरे जन्म का यही फल है,मेरी प्रार्थना भी एक ही विषय है और आपकी कृपा भी मै इसी में मानता हूँ की आप अपने दसो के दस,उन दसो के नौकरों का नौकर और उन नौकर के गुलामो का गुलाम और उनका भी गुलाम-इस तरह अपने दासो की परम्परा में मेरे को भी याद करले |"
श्रीमद भागवत जी में भी अंत में यही माँगा गया है |
और ऐसी बात करने पर भगवन भी अपने भक्त को याद किये बिना नही भूलते-
"संत मेरे हृदय है और मै उन संतो का हृदय हूँ | वे मेरे सिवाय और किसी को नही जानते और मै भी उनके सिवाय ओर कुछ नही जानता|"
मै भगवन का हूँ और भगवन मेरे है..फिर वे ए क्यों नही?अभी तक भगवन मिले क्यों नही? अभी तक भगवन ने दर्शन क्यों नही दिए? ऐसी व्याकुलता होने पर जब संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विचेद हो जाता है तब भगवत्प्राप्ति होती है |
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