Monday, January 30

सत्संग~1






व्य क्ति अकेला नहीं जी पाता। इसका एक कारण है प्रारब्ध। पिछले कर्मो के फलों का आदान प्रदान। यह आदान-प्रदान ही संगत है। इसी में सुसंग और कुसंग के समीकरण बनते हैं। इसी से मन में इच्छाओं का एक वातावरण बनता है। जीवन शैली का परिवर्तन और रूपान्तरण इस वातावरण पर निर्भर करता है। अकेला व्यक्ति भले ही जंगलों में रहने लगे, किन्तु इस वातावरण के अभाव में वह जीवन को कभी समझ ही नहीं पाता। जीवन को तो जीना ही पड़ेगा। दूसरे के अनुभव भी इसमें काम नहीं आ सकते।


जीवन का उद्देश्य है माया के बीच जीते हुए माया के प्रभाव से मुक्त होना। जिस नाद से निकलकर आए, फिर से उसी में लीन हो जाना। स्वयं के मूल स्वरूप को समझ लेना। इसके लिए व्यक्ति को दर्पण चाहिए, जिसमें वह परिवर्तन को देख सके। संसार ही वह दर्पण है। व्यक्ति में होने वाले प्रत्येक परिवर्तन को प्रतिबिम्बित कर देता है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण जीवन व्यवहार ही सत्संग है। व्यक्ति भिन्न-भिन्न कारणों से भिन्न-भिन्न लोगों की संगत करता है। वांछित के प्राप्त होते ही वहां से हट भी जाता है। स्वभाव के अनुरूप व्यक्ति अनावश्यक और अवांछित के पास सोच-विचारकर तो नहीं जाता। तकदीर वहां ले जाए तो अलग बात है। इस सांसारिक सत्संग का मुख्य सूत्र होता है संस्कार। इनको ही व्यक्ति का धर्म कहा जाता है। क्योंकि इन्हीं के आधार पर व्यक्ति जीवन यात्रा तय करता है। जीवन के लक्ष्य निर्घारित करता है। इसीलिए कभी भी दो आदमियों का धर्म एक-सा नहीं होता। सम्प्रदाय हो जाता है।

आज व्यक्ति का धर्म नष्ट हो रहा है। उसे किसी प्रकार संस्कारों के क्षेत्र में शिक्षित ही नहीं किया जा रहा। सीधा उसको सम्प्रदाय से जोड़ दिया जाता है। एक संस्कारविहीन व्यक्ति अपने परिवार का भी हित नहीं करता। सम्प्रदाय अथवा देशहित के लिए कैसे सकारात्मक कार्य करेगा? हां, सम्प्रदाय के नाम पर किसी का भी अहित कर सकता है। बिना संस्कारों के उसके भीतर आसुरी भाव ही प्रबल होता जाता है। क्योंकि वह संगत का ही प्रभाव है। कोयले की दलाली में काले हाथ!

सत्संग का श्रेष्ठ स्थान परिवार ही होता है। बाहर जाकर किया सत्संग आज तो धन आधारित भी हो गया और शास्त्र आधारित भी रह गया। हम रामायण, महाभारत जैसी कथाएं सुनकर कुछ देर के लिए त्रेता और द्वापर युग में चले जाते हैं। वर्तमान से भटक जाते हैं। घर लौटकर पुन: कलियुग में व्यस्त हो जाते हैं। त्रेता और द्वापर में तो जी नहीं सकते। दर्द निवारक गोली की तरह कुछ देर मुक्ति का एहसास सत्संग नहीं कहला सकता। यह गोली कितनी महंगी होती है, इसको संतों की सम्पत्ति देखकर समझ सकते हैं। हर व्यक्ति अलग स्वभाव का होता है।

उसके जैसा सृष्टि में दूसरा नहीं होता। सबका प्रारब्ध, कर्म क्षेत्र और भाग्य भी अलग-अलग होते हैं।  अत: सत्संग भी तभी फलदायी होगा, जब व्यक्तिगत चिन्तनधारा और भावभूमि को प्रभावित कर सके। इने-गिने संत रह गए हैं जिनका ध्यान व्यक्तिगत रूपांतरण पर रहता है। वरना धन के जरिए से मीडिया से प्रचार और यश-कीर्ति का फैलाव लक्ष्य रह गया है। जो व्यक्ति समाज सुधार के लिए सांसारिक सुख छोड़कर संन्यास लेता है, वह नए सिरे से भिन्न प्रकार के ऎश्वर्य में खो जाता है। स्वयं को भगवान तक कहने लगता है। ऎसे महापुरूषों के साथ किया गया सत्संग सांई बाबा जैसी परिणति देता है। इसमें किसी के साथ जीवन का जुड़ाव नहीं होता।

जीवन का जुड़ाव सत्संग की पहली शर्त है। इसीलिए परिवार सबसे श्रेष्ठ सत्संग भूमि है। कभी मैला न पड़ने वाला दर्पण है। जीवन के पहलुओं पर विस्तार से व्यावाहारिक ज्ञान कराता है। स्वयं को समझने और सुधरने के लिए पूरा समय देता है। परिवार में सबका अपना-अपना स्थान होता है। मर्यादा के सूत्र में पिरोई एक माला की तरह हर मणिये का बराबर का महत्व होता है। उसका भी अपने प्रारब्ध के अनुरूप एक निश्चित स्वभाव होता है। संस्कारों की भी भिन्नता रहती है। सबसे बड़ी शर्त यह है कि आप साथ रहो या न रहो, सम्बन्धों को छोड़ा नहीं जा सकता। नहीं निभाने पर भी सम्बन्ध तो रहता है। व्यक्ति का व्यवहार ही संगदोष में बदल जाता है। परिवार और समाज के लिए उदाहरण बन जाते हैं।


article taken from-rajsthan patrika.