Saturday, February 4

सत्संग~2





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परिवार के इस सत्संग का शत्रु भी सचाई को छिपाना ही है। झूठ ही है। यह झूठ सदा बोलने वाले का अपमान ही कराता है। मैं यदि अपने भाई या पुत्र का अपमान करूं  तो क्या मैं स्वयं का अपमान नहीं करता? पत्नी को यदि गाली दूंगा तो लगेगी तो मुझे ही। यदि उसे अपमानित होते देखकर मेरा खून नहीं खौले, तो सम्बन्ध कहां रह गया? प्रत्येक सम्बन्ध के साथ अपने व्यवहार को समझते जाना, संकल्प कर-करके ऊपर उठते जाना ही सत्संग का लाभ होता है। हम स्वयं को बचाने के लिए दूसरों को दोष देकर उनको अपमानित भी कर देते हैं। वह भी हमारा ही अपमान है। हम अपने किए से अपना ही सुख और साख घटाते हैं। दूसरों के कर्मो का फल हमको नहीं मिल सकता। इतने अनुभव दुनिया की कोई पाठशाला नहीं देती। तमस और राजस वृत्तियों और विचारों के पार जाकर सत्वगुण का ग्रहण ही सत्संग है। घर से बाहर का सत्संग यह गारण्टी नहीं देता। मन बहुत चंचल है।

एक कहावत है कि यदि आप पूरी दुनिया की बातें करते हैं, तो आपका ध्यान खुद पर कभी नहीं जाएगा। यदि आप स्वयं के सुधार के प्रति चिन्तित हैं, स्वयं के व्यवहार का नित्य आकलन (स्वाध्याय) करते हैं, तो आपको किसी की चिन्ता से व्यवधान नहीं होता। परिवार के वातावरण में हम एक-दूसरे का सहयोग करके संस्कार शुद्धि करते हैं। हर सदस्य के चिन्तन एक-दूसरे के प्रति सकारात्मक बनाते हैं। त्याग करते हैं। प्रेम करते हैं। सम्मान करने का अभ्यास करते हैं। धीरे-धीरे यही अभ्यास हमें समाज में भी प्रतिष्ठित करता है।

यही तो सत्संग का फल कहलाता है। इसके लिए परिवार का हर सदस्य बधाई का पात्र बन जाता है। ईश्वर की कृपा से ऎसी आत्माएं परिवार में अवतरित हुइं, उसका भी धन्यवाद। और उन बुजुर्गो का भी धन्यवाद, जिन्होंने घर-परिवार को सत्संग की भूमिका के लिए तैयार किया। सभी को एक दूसरे का शुभ चिन्तक होने का पाठ सिखाया। यही सत्संग है। हर संग एक सत्संग बन जाता है।